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रावण की विनती

कोदंड संभाले राम ने आज फिर शर साधा है। सामने अश्रुपूरित रावण ने आज एक विनती कह डाली है। विनिर्बन्ध, विनय, विवेकी, शील, दयालु, नम्र, स्नेही, आशान्वित, धैर्य और निगृह यह सभी गुण तो तुम्हारे थे राम। क्रोध, लोभ, मोह काम, ईर्ष्या, दम्भ, भय, दुःख द्वेष, आवेश गुण, अवगुण सभी हैं यह मेरे। बहिन का प्रतिशोध लेने को, कुल का उद्धार करने को, अनेकानेक असुरों को मुक्ति दिलाने को, अधर्म की राह चुनी मैंने। मायावी तो मैं था हे राम , अकेला मैं अनेक बन, मचाता था कोहराम। फिर आज क्या हो गया? एक ही हूँ मैं, पर अनेक हैं राम? फिर यह कैसे हुआ राम? एक से अनेक तुम कब हुए? मायावी तुम कब बने? रूप है राम का, कार्य हैं रावण के? यह कैसे हो गया राम? उठाओ तीर, भेद दो मेरा ह्रदय, काट दो मेरे हाथ मेरे सर, जला दो मुझे एक बार फिर। पर, बोलो तो, अपने अंदर का रावण कब मारोगे? लोभ, मोह, काम को कब तुम अंकुश लगाओगे? स्वार्थाचार को कब तुम आग लगाओगे? अंतःरावण को मिटा सको तुम, सदाचार की अग्नि में जल सको तुम, सद्भाव का ज्ञान समझ सको तुम, सत्यपरायणता का पालन कर सको तुम, तो, ...