क्षितिज की ओर
चल पड़ा था मैं ,
छोड़ कर सब कुछ,
जो मेरा था
और जो पाना था - वह सब
जो मेरा होता।
राह पर निकला मैं,
अपनी मंजिल पाने ,
चला जा रहा था,
क्षितिज की ओर।
मेरे गांव और शहर,
नदी - नाले, जंगल - जानवर,
सब छूटे जा रहे थे।
सूरज और मेघ ही
संग संग चल रहे थे।
तारे भी चाँद को ,
कभी छुपा लेते थे।
और मैं
चला जा रहा था
क्षितिज की ओर।
नंगे पैर, फटे वस्त्र,
हाथ में डंडे पर पोटली लिए,
चंचलता का उपदेश देता मैं,
चला जा रहा था।
राह में लोग और भी थे,
मेरे जैसे,
वैसी ही आँखें, हाथ और पैर लिए।
पर,
नहीं जा रहे थे वे,
क्षितिज की ओर।
एक चौराहा,
और मैं अनजाना,
घबराया सहमा सा,
सोचता था जाऊं कहाँ?
पूछता था तो उत्तर नहीं,
चलता था तो साथ नहीं,
राही मुझे छोड़ चल दिए कहीं,
और मेरी मंजिल दूर वहीँ,
जाना था मुझे जिस ओर,
क्षितिज की ओर।
साहस था, हौसला था,
मन में एक जोश था,
की चलते रहना हैं,
और क्षितिज को पाना है।
पर डर गया हूँ मैं,
अपने अकेलेपन से,
एकाकी जीवन से,
और अंतहीन राहों से,
अब तो सिर्फ देखता ही हूँ मैं,
क्षितिज की ओर।
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