Thursday, July 10, 2014

Dreams

जाग उठा हूँ मैं,
उस बेदर्द नींद से,
जो हमेशा साथ में,
कितने सारे सपने ले आती है।

उन्हीं टूटे सपनों की टीस,
अब भी महसूस होती है।
उन्हीं अनकहे सपनों में न जाने,
किस किस से बात होती है।

इन्हीं सपनों में,
सारी ज़िन्दगी उतर आती है।
कभी शिखर पे ले जाती है,
कभी खाई में पटक जाती है।

हर सपना मुझे
घाव नया दे जाता है।
जमीन के नीचे और नीचे,
दफ़न कर जाता है।

सपने सच नहीं होते,
यह मैंने सीखा है।
पर सपने ना देखूं,
यह भी कहाँ हो पता है?

सपने मन का आईना हैं,
तभी तो मैं सपने देखता हूँ।
और हर बार चोट खा कर,
अपने घाव पर आंसुओं का मलहम रखता हूँ।

जाग तो चुका हूँ मैं,
उस बेदर्द नींद से,
पर फिर से अपने आगोश में लेने को,
चले आ रहे हैं, यह काँच के सपने।

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